बहुत ख़ूब-सूरत हो तुम, बहुत ख़ूब-सूरत हो तुम- ताहिर फ़राज़


बहुत ख़ूब-सूरत हो तुम, बहुत ख़ूब-सूरत हो तुम - ताहिर फ़राज़


बहुत ख़ूब-सूरत हो तुम, बहुत ख़ूब-सूरत हो तुम 
कभी मैं जो कह दूँ मोहब्बत है तुम से 
तो मुझ को ख़ुदा रा ग़लत मत समझना 
कि मेरी ज़रूरत हो तुम
बहुत ख़ूब-सूरत हो तुम 


हैं फूलों की डाली पे बाँहें तुम्हारी 
हैं ख़ामोश जादू निगाहें तुम्हारी 
जो काँटे हूँ सब अपने दामन में रख लूँ 
सजाऊँ मैं कलियों से राहें तुम्हारी 
नज़र से ज़माने की ख़ुद को बचाना 
किसी और से देखो दिल मत लगाना 
कि मेरी अमानत हो तुम 
बहुत ख़ूब-सूरत हो तुम... 


कभी जुगनुओं की क़तारों में ढूंढा 
चमकते हुए चांद-तारों में ढूंढा 
ख़जाओं में ढूंढा, बहारों में ढूंढा
मचलते हुए आबसारों में ढूंढा
हक़ीकत में देखा, फंसाने में देखा 
न तुम सा हंसी, इस ज़माने देखा
न दुनिया की रंगीन महफिल में पाया
जो पाया तुम्हें अपना ही दिल में पाया 
एक ऐसी मसर्रत हो तुम...
बहुत ख़ूब-सूरत हो तुम...


जो बन के कली मुस्कुराती है अक्सर 
शब हिज्र में जो रुलाती है अक्सर 
जो लम्हों ही लम्हों में दुनिया बदल दे 
जो शाइ'र को दे जाए पहलू ग़ज़ल के 
छुपाना जो चाहें छुपाई न जाए 
भुलाना जो चाहें भुलाई न जाए 
वो पहली मोहब्बत हो तुम बहुत ख़ूब-सूरत हो तुम 
बहुत ख़ूब-सूरत हो तुम
बहुत ख़ूब-सूरत हो तुम बहुत ख़ूब-सूरत हो तुम

-ताहिर फ़राज़

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